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बोतलें बिकने लगी हैं
आज पानी की,
गन्ध गायब हो न जाए
रातरानी की!
कैद कूलर में हुई शीतल पवन,
घट गया अमराइयों में
स्वार्थ अपना ही अगन
अस्मिता खतरे में,
छप्पर-छाँव-छानी की!
आंचलिकता है अछूतों की तरह,
रौब है अँग्रेजियत का
रातपूतों की तरह
आ रसोई तक गई
चप्पल लखानी की!
खेत सूखे और प्यासे हैं कुएँ,
बाँझ लतिका, तरू नपुंसक
मेघ सन्यासी हुए
नींद जाने कब खुलेगी ?
राजधानी की!
-आचार्य भगवत दुबे |