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सुविधा के मोह में
बहक गए पाँव
मेरा, छूट गया गाँव
गोबर से लिपा पुता
रहता था आँगन
खुशियाँ ही खुशियाँ
तब,
लाता था सावन
जीवन अब अस्त-व्यस्त
सर पे नही छाँव
शहर सारा बेगाना,
सर पे नही साया
सुख में,
जो साथ रहा,
दुख मे ना आया
नहीं बचा ठौर कोई
नहीं कोई ठाँव
रोजी के लाले हैं,
पाँवों मे छाले
सुलझाए,
सुलझे ना,
उलझन के जाले
जीवन मे लगने लगे
रोज़ नए दाँव
-- रोहित रूसिया ( छिंदवाडा ) |