सूरज फिर
से हुआ लाल है
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वक्त की चलती घड़ी हूँ
मैं घड़ी हूँ
लूँ न घूँघट का सहारा
चाँद सा मुखड़ा उघारा
मैं खड़ी दीवाल से सट, देखती घर का नजारा
एक खूँटी पर अड़ी हूँ
घूरते है लोग मुझको
और बाहर झाँकते हैं
दूसरों की राह देखे चाल मेरी आँकते हैं
उम्र में उनसे बड़ी हूँ
आदतें किसकी न जानी
लटपटी सबकी कहानी
शाह हो अथवा लुटेरा, देख ली सब की जवानी
घनघना कर लड़ पड़ी हूँ
रात-दिन मैं टिकटिकाती
वक्त पर घंटा बजाती
आ गया बेवक्त कोई, मैं उसे भी झेल जाती
हर समय की फुलझड़ी हूँ
दीन मुझको वर न पाये
क्रय कभी भी कर न पाये
पूछता बस हाल मेरा, ला मुझे वह घर न पाये
देख उसको रो पड़ी हूँ
-रामदेव लाल 'विभोर' |