सूरज फिर
से हुआ लाल है
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मन तो भीगे कपड़े सा
सुधियों की अर्गनी टँगा
चलती हैं
तेज हवाएँ
ले-लेकर तेजाबीपन,
रह-रह कर
घटता बढ़ता
साँसों पर दर्द का वजन
हल्का-हल्का सा था मैं
जाने किस बोझ से दबा
जीने का
मिट गया वहम
रोने को मिल गया जनम
सुग्गे सा
पालता रहा
पिंजरे में प्यार का भरम
पाँखों से झर गए सपन
आँखों से कर गए दगा
डूब-डूब कर
लिख गए
खत लगते इश्तहार से
खुशियाँ गुम
हो गई कहीं
दर्द हो गए फरार से
आवाजें खोखली यहाँ
सुनता हूँ मैं ठगा-ठगा
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-डॉ. सुरेश |