मैं नैया
मेरी क़िस्मत में
लिक्खे हैं दो कूल-किनारे
पार उतारूँ मैं सबको मुझको ना कोई
पार उतारे
जीवन की
संगिनी बनी है बहती नदिया - बहता पानी
क्या मज़ाल जो धार गह सकूँ
संग-संग बह लूँ मनमानी
कोई इस तट बना खेवइया
उस तट कोई
खड़ा पुकारे
उल्टी-सीधी
लहरों से लड़ने-भिड़ने की नियति मिल गई
सख्त थपेड़ों की मारों से
कनपटियों की चूल हिल गई
औघट घाट लगे तो जुटकर
छेद गिन रहे
लाकड़हारे
मेरी राह
धरें पानी पर उठती-गिरती वे पतवारें
जिनको ख़ुद का पता नहीं
रह-रहकर इधर-उधर मुँह मारें
गैरों के हाथों कठपुतली-सा
जो नाचें उठ
भिनसारे
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-दिनेश सिंह |