सूरज फिर
से हुआ लाल है
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हिमालय का
सतत प्रसरित प्रवाहित मान है गंगा
अमित आदर्श आर्यावर्त की
पहिचान है गंगा
चरण प्रक्षालती
हरि के परम पावन पयस्विनि बन,
अमर वैदिक ऋचाओं का अनश्वर-
गान है गंगा
उतर आई
शिखर कैलाश से, भागीरथी बनकर
धरा से स्वर्ग तक आध्यात्म का
उत्थान है गंगा
वनों में
घाटियों में नाचती, अटखेलियां करती,
तृषा को तृप्ति है अभिशप्ति को
वरदान है गंगा
हहर कर यह
जहाँ से निकल जाती, तीर्थ बन जाते
बनाती देवता नर को, सुधामय
पान है गंगा
गिरी अमरावती
से, शीश शंकर के निबद्धित हो
भगीरथ की तपस्या का सतत
सम्मान है गंगा
गरजते सिंधु
के उर पर, विलोडित वक्ष अपने रख
अनत उद्वेलिता, अनुराग का
अभियान है गंगा
नहाते ही
अघाते पाप पुंजों को विनष्टे ये
विषम कलिकाल में भी अमृत रस का
पान है गंगा
-विष्णु विराट |