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प्रेमा नदी |
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मैं कभी गिरता - सँभलता हूँ
उछलता-डूब जाता हूँ
तुम्हारी मधुबनी यादें लिए
प्रेमा नदी
यह बड़ी जादूभरी, टोने चढ़ी है
फूटती है सब्ज़ धरती से, मगर
नीले गगन के साथ होती है
रगों में दौड़ती है सनसनी बोती हुई
मन को भिगोती है
उमड़ती है अँधेरी आँधियों के साथ
उजली प्यास का मरुथल पिए,
प्रेमा नदी
भोर को सूर्या घड़ी में
खुश्बुओं से मैं पिघलता हूँ
उबालों को हटाते ग्लेशियर लादे हुए
हर वक़्त बहता हूँ
रुपहली रात की चंद्रा-भँवर में
घूम जाता हूँ
बहुत खामोश रहता हूँ
मगर वंशी बजाती है मुझे
अपनी छुअन के साथ
हर अहसास को गुंजन किए
प्रेमा नदी
यह सदानीरा पसारे हाथ
मेरे मुक्त आदिम निर्झरों को माँग लेती है
कदंबों तक झुलाती है
निचुड़ती बिजलियाँ देकर
भरे बादल उठाती है
बिछुड़ते दो किनारों को
हरे एकांत का सागर दिए
प्रेमा नदी
- सोम ठाकुर
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