लगे अस्मिता खोने अपनी
धीरे धीरे गाँव
राजपथों के सम्मोहन में
पगडंडी उलझी
भूख गरीबी अबुझ पहेली कभी नहीं सुलझी
अनाचार के काले कौए उड़-उड़
करते काँव
राजनीति की बाँहें पकडीं घेर
लिया है मंच
बँटवारा बन्दर सा करते मिलजुल कर सरपंच
पश्चिम का परवेश पसारे
अंगद जैसा पाँव
छोड़ जड़ों को, निठुर शहर की बातों में आते
लोकगीत को छोड़ गीतिका पश्चिम की गाते
सीख रही हैं गलियाँ चलना
शकुनी जैसे दाँव
दंश सोतिया झेल रहीं हैं बूढ़ी चौपालें
अपनी ही जड़ लगीं काटने बरगद की डालें
ढूँढ रही निर्वासित तुलसी
घर में थोड़ी छाँव
-मनोज जैन
'मधुर' |