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९. १. २०१२

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नदी का छोर

सूरज फिर
से हुआ लाल है

यह खुलापन
यह हँसी का छोर
मन को बाँधता है
सामने फैला नदी का छोर
मन को बाँधता है

बादलों के
व्यूह में भटकी हुई मद्धिम दुपहरी
कौंध जाती बिजलियों-सी
आँख में
छवियाँ छरहरी
गुनगुनाती घाटियों का शोर
मन को बाँधता है

ये घटाएँ
शोख यह माहौल को रँगती सियाही,
गुम गए हैं अँधेरों में
रोशनी के
किरनवाही
लहरियों पर लहरियों का दौर
मन को बाँधता है

दूर
तक फैली हुई है
रेत की रंगीन दुनिया,
यहाँ आकर सिमट जाती हैं
अनेक
संस्कृतियाँ
एक सन्नाटा यहाँ हर ओर
मन को बाँधता है

-ओम निश्चल

इस सप्ताह

गीतों में-

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ओम निश्चल

अंजुमन में-

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सतीश कौशिक

दिशांतर में-

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शारदा मोंगा

मुक्तक में-

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जयजयराम आनंद

पुनर्पाठ में-

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फजल ताबिश

पिछले सप्ताह
२ जनवरी २०१२ के अंक में

गीतों में-

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शशिकान्त गीते

अंजुमन में-

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मयंक अवस्थी

छंदमुक्त में-

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विक्रम पुरोहित

घनाक्षरी में-

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आशुतोष द्विवेदी

पुनर्पाठ में-

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श्रीकृष्ण शर्मा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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