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१७. १०. २०११

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यात्राएँ गंगा सागर की
1

सूरज फिर
से हुआ लाल है

यात्राएँ गंगा सागर की
नावें पत्थर की
ऐसी बदल गई है
आबो हवा शहर भर की
1
चोंच पसारे चिड़िया बीने
आँगन आँगन दाना
स्वाती भर सीपियाँ देखतीं
बादल आना जाना
सूरज छूने की इच्छाएँ
कैंदें हैं घर की
1
अक्षर अक्षर स्याही आँजे
रंग पुते चेहरे
हमें मिली हैं चीखें
सुनने वाले सब बहरे
बाहर से मुसकानें लगतीं
चोटें भीतर की
1
- विजय किशोर मानव
इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

हाइकु में-

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
१० अक्तूबर २०११ के अंक में

गीतों में-
मधुकर अष्ठाना

अंजुमन में-
हस्तीमल हस्ती

दिशांतर में-
ललित अहलूवालिया 'आतिश'

क्षणिकाओं में-
अरुणा सक्सेना

पुनर्पाठ में-
अब्बास रज़ा अल्वी

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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