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५. ९. २०११

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मैंने हलो कहा

 

घंटी बजी
और फोन पर मैंने हलो कहा
1
वही-वही
बिल्‍कुल पहले जैसे ही
धुली-धुली
उधर हँसी तुम
और इधर
बगुले की पाँख खुली
बँधी झील में सहसा
पूरनमासी गई नहा
1
होठों पर होंगी
अब भी कुछ बातें
रूकी-रूकी
हर सवाल पर
बड़ी-बड़ी दो आँखें
झुकी-झुकी
बस ऐसे ही बतियाने का
अपना ढंग रहा
1
बड़ी उम्र ने
खींची ही होंगी
कुछ रेखाएँ
बाल सफेद
हुए होंगे
शायद दाएँ-बाएँ
फिर भी होगा वही चेहरा
था जो कभी रहा
1
सुनो कहाँ
पूरा हो पाता है
अपना होना
खाली ही रह जाता
है मन का
कोई कोना
बहुत अकेला कर ही जाता है
कोई लम्‍हा
1
- सत्यनारायण

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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