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सीढ़ियों पर
धूप से
चढ़ते-उतरते दिन।
नहीं हारे
हर घड़ी हर पल चले,
तार पर ज्यों
चल रहे हों सिलसिले,
और नट की
झूम से
गिरते-संभलते दिन।
दिन चढ़ा
ऐसे कि हो हल्दी चढ़ी,
शाम शरमीली
रचा मेहंदी खड़ी,
रूपसी के
रूप से
सजते-संवरते दिन।
अभी
क्षिति पर थे
अभी आकाष में,
साँप-सीढ़ी से
समय के पाष में,
आदमी के
भाग्य से
बनते-बिगड़ते दिन। -दिवाकर
वर्मा |