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  २. ५. २०११

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मैली हो गई धूप
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पथ में छाया धूम गुबार
कोहरे में डूबा संसार,
अम्बर से
धरती तक आते
मैली हो गई धूप

फीकी पड़ गई सोनल चुनरी
धूमिल सा सब हार शृंगार,
किरणों की डोरी को थामे
ढूँढ़े हरित तरू की डार,
दिशा- दिशा
कोलाहल शोर
बहरी हो गई धूप

नदिया की लहरों का दर्पण
अंग-अंग निहारा जिसने,
सागर संग अठखेली करती
कण-कण रूप सँवारा जिसने,
देख के
अब धुँधली परछाईं
साँवली हो गई धूप

पिघले पर्वत, निर्जन उपवन
दूषित वायु, पंकिल ताल,
व्याकुल पंछी कैसे तोड़ें
घुटी-घुटी साँसों का जाल,
धरती का दुख नयनों में भर
गीली हो गई धूप
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- शशि पाधा

इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

मुक्तक

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
२५ अप्रैल २०११ के अंक में

गीतों में-
 शिवबहादुर सिंह भदौरिया

छंदमुक्त में-
सिद्धेश्वर सिंह

कुंडलियों में-
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक

पुनर्पाठ में-
अमिताभ मित्र

काव्य संगम में- ओ एन वी कुरूप की मलयालम कविताओं का हिंदी रूपांतर

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

सहयोग : दीपिका जोशी

 
 
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