रो रो मरने से
क्या होगा हँसकर
और जियो
वृद्ध क्षणों को बाहुपाश में
कसकर और जियो
रक्त दौड़ता
अभी रगों में इसे न
जमने दो
बाहर जो भी हो पर भीतर लहर न
थमने दो
चक्रव्यूह टूचता नहीं तो
धँसकर और जियो
श्वास जहाँ तक
बहे उसे बहने का
मौका दो
जहाँ डूबने लगे उसे कविता की
नौका दो
गुंजन जन्मे संजालों में
फँसकर और जियो
टूटे सपने
जीने का अपना सुख होता
है
सूरज धुंध धुंध आँखें शबनम में
धोता है
ज्वार झेलते अंतरीप में
बसकर और जियो
--रामस्वरूप सिंदूर