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आ गए कुहरे
भरे दिन |
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आ गए,
कुहरे भरे दिन आ गए।
मेघ कन्धों पर धरे दिन आ गए।
धूप का टुकडा़ कहीं भी
दूर तक दिखता नहीं,
रूठकर जैसे प्रवासी
खत कभी लिखता नहीं,
याद लेकर
सिरफिरे दिन आ गए।
दूर तक लहरा रही आवाज़
सारस की कहीं है,
सुबह जैसे गुनगुनाकर श्वेत
स्वेटर बुन रही है,
आँख मलते
छोकरे दिन आ गए।
इस शिखर से उस शिखर तक
मेघ-धारा फूटती है,
घाटियों के बीच जैसे
रेलगाड़ी छूटती है,
भाप पीते मसखरे दिन
आ गए।
एक धुँधला पारदर्शी जाल
धीवर तानता है,
बर्फ़ को आकाश का रंगरेज़
चादर मानता है,
यों बदलकर
पैंतरे दिन आ गए।
बाँध लेती हर नदी कुछ
सिलसिला-सा हो गया है,
मन पहाड़ी कैक्टस-सा
घाटियों में खो गया है,
नग्न होते
कैबरे दिन आ गए।
-- उमाशंकर तिवारी | |
इस सप्ताह
गीतों में-
अंजुमन में-
छंदमुक्त में-
क्षणिकाओं में-
पुनर्पाठ में-
पिछले सप्ताह
३ जनवरी २०११ के अंक में
गीतों में-
कुमार रवीन्द्र,
मधु प्रधान,
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे,
निर्मला जोशी,
संतोष कुमार सिंह,
कमलेश कुमार दीवान,
रावेंद्रकुमार रवि,
कश्मीर सिंह,
गीता पंडित,
आचार्य संजीव सलिल,
नवीन चतुर्वेदी,
कुमार रवीन्द्र,
राकेश पांडेय,
रूपचंद्र शास्त्री मयंक,
धर्मेन्द्र कुमार सिंह,
प्रभु दयाल,
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छंद मुक्त
में-
सुभाषिणी खेतरपाल,
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सिद्धेश्वर सिंह।
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हाइकु में-
ओम प्रकाश नौटियाल।
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