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डॉ. आशुतोष बाजपेयी के
सवैये

 

 

आठ सवैये

सपना कब पूर्ण करे वह दीन जिसे श्रम में नित है खपना
खपना पड़ता हर रोज उसे वह भूल गया हरि को जपना
जाना बस पेट क्षुधा यह धर्म न ये जग है उसका अपना
अपना वह दर्द लिये फिरता सुख का हर भाव रहा सपना

रवि के तुम पुत्र यमाग्रज हो नित न्याय प्रसार किया करते
भय दंड दिखाकर के जग को अनुशासन में तुम थे धरते
फिर भी कलि का कुप्रभाव पड़ा अब लोग नहीं तुमसे डरते
तिल तैल व दीपक पूजन से जन दुष्ट कृपा तब हैं हरते

अवसाद न हो इस जीवन में यह बात निरंतर ध्यान धरो
तुमको कुछ पुण्य मिले न मिले जग के पथ कंटक बन्धु हरो
तुम मानव हो बन सूर्य तपो सब के सब कष्ट विनष्ट करो
मरना ध्रुव सत्य सखे यह सोच स्वदेश स्वधर्म निमित्त मरो

वन का मिट नाम निशान गया पशु जंगल के मिलते कब हैं
जिनका करते हम पोषण थे दृग से पशु ओझल वो सब हैं
उनके वह हिंसक भाव मनुष्य समूह लिये फिरते अब हैं
तब क्रंदन मानवता करती निज के वह शत्रु हुए जब हैं

रतभोग विलास निशाचर होकर मानव धर्म समूल गया
तुम भूल गए निज कर्म सखे धन आज बना कुल धर्म नया
अब लज्जित मानवता कहती उपकार न शेष न भाव दया
मद लोभ बढ़ा मति नष्ट हुई जिस भाँति प्रभाव करे विजया

तुम डाल रहे सिर ऊखल में फिर मूसलवार कहाँ पर हो
अपने कर काट दिये यह सोच कि हस्त न शोणित से तर हो
तप त्याग चुके किस भाँति कहो शुभ सुन्दर प्राप्त तुम्हें वर हो
निज की पहचान करो तुम तो तम नाशक हो व दिवाकर हो

लखते जग की गति हो फिर भी प्रभु क्यों हमसे मुख मोड़ रहे
तव नाम रहा सबकी सुधि में पर कर्म सनातन छोड़ रहे
धुनते सिर सज्जन हैं कितना सब पाप निरंतर जोड़ रहे
बसुधा न कुटुम्ब रही अब तो परिवार यहाँ जन तोड़ रहे

सर पे सखि डाल गई चुनरी वधु थी तब लाज लगी करने
छन से छनकी जब पायल हो मन के सब भाव लगे हरने
खन से खनके जब कंगन तो अवसाद कुभाव लगे मरने
कितने सुखदायक वे क्षण थे जब माँग भरी उसकी वर ने

२३ दिसंबर २०१३

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