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        ऋतु शीत आती है

 

जब धरा पर धूम से ऋतु शीत आती है
दीन हीनों पर पसर आसन
जमाती है

खूब भाते हैं खुले डेरे इसे
प्यार से यह पाश में उनको कसे
ज़ुल्म ने फरियाद उनकी कब सुनी
जो किसी दूजे ठिकाने यह बसे
बंद घर देते नहीं हैं
भाव जब इसको
बेबसों फुटपाथियों पर
ताव खाती है

जब इसे संपन्नता है ठेलती
गर्म कमरों का कहर यह झेलती
खोजती फिर काँपते कोने कहीं
और अधनंगे तनों से खेलती
यातना के जो सताए
उन यतीमों को
हर बला बढ़कर
सदा से ही सताती है

- कल्पना रामानी
१ दिसंबर २०२०

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