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        आस है उस धूप की

 

आस है उस धूप की
जो दूर छितरी है

साँस रोके भेड़ ठिठकी
सर्द घाटी में
जम रहा है रक्त उसका
नवल काठी में
घास भी जो नर्म थी
उस ओर बिखरी है

बुन रही किरनें झिंगोला
बर्फ़ से सटकर
किन्तु पाए भेड़ कैसे
झूल को बढ़कर
जगह उसकी समझ में
वही निखरी है

संवाद करता है नहीं
सीटी बजाता है
पर्वतों पर बैठ मालिक
गुनगुनाता है
महसूस पाई बात जब
तब बहुत अखरी है

- कल्पना मनोरमा
१ दिसंबर २०२०

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