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       गिरी भोर तक ओस

 

तेवर बदले साँझ ने, गिरी भोर तक ओस
बेटा गहरी नींद में, बाप रहा है कोस

दूर-दूर तक धुंध थी, कहीं नहीं थी धूप
लगा प्रेयसी आ गयी, आयी जैसे धूप

रूप बदल कर आ गया, पहन शीत का ताज
मौसम का अच्छा लगा, बदला हुआ मिजाज़

बिटिया जब-जब खेलती, भरती उर में धूप
वैसे तो मन कोहरा, जैसे अंधा भूप

अम्मा भीषण ठण्ड में, करे 'किचन' में काम
तबियत का दे वास्ता, बहू करे आराम

क़ैदी जब से धूप है, पहरा देती शीत
छत पर स्वेटर बीनते, नहीं मिले मनमीत

'हलकू' खोजे आसरा, रात भयानक सर्द
माघ-पूस बहरे हुए, काश समझते दर्द

हाड़ कँपाती ठण्ड में, है कितना मज़बूर
मिले निवाला पेट को, दौड़ रहा मज़दूर

गलनभरी रातें हुईं, रोम-रोम में भीत
सन्नाटे का राज है, रानी अब है शीत

किये बहाना ठण्ड का, साहब पड़े अचेत
फत्तू फटी कमीज़ में, जोत रहा है खेत

- डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर
१ दिसंबर २०२०

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