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       राजकाज अब धुंध का

 

छीन धरा के रंग सब, किया श्वेत संसार
राज काज अब धुंध का, हुआ सूर्य लाचार

धरा ठिठुरती शीत से, सहती है सन्ताप
धुंध दुशाला ढँक दिया, अम्बर ने चुपचाप

ऊषा बैठी अनमनी, आये ना आदित्य
प्रात चुनरिया श्वेत है, लाल ओढ़ती नित्य

किरणें भूलीं रास्ता, दुबके पंछी नीड़
दिन चढ़ आया पर अभी, नहीं दिख रही भीड़

पेड़ ढँके सब बर्फ से, खड़े रोक कर श्वास
पिघलेगी यह बर्फ कब, पवन लगाए आस

सड़क किनारे मर गया,नहीं सह सका शीत
ओढ़ रजाई लिख रहे, जिस पर जनकवि गीत

भारी शीत प्रकोप से, बन्द स्कूल हैं आज
बच्चों की मस्ती बढ़ी, मात-पिता नाराज

धरा धुंध से जा मिली, सूझे ना कुछ काम
बिन सूरज सब एक से, सुबह, दुपहरी, शाम

धुंध ओस चारों तरफ, छिपे धरा के रंग
सप्तवर्णी सृष्टि सकल, आज लगे बेरंग

वक्त कभी थमता नहीं मौसम बदले रूप
जनजीवन फिर चल पड़ा, आस लगाए धूप

- सीमा हरि शर्मा
१ दिसंबर २०२०

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