स्वर्ण हिरण
स्वर्ण हिरण छलता है
पग-पग पर
राम और सीता को फिर मारीच दलता है
इच्छाएँ उड़ती हैं
तितली-सी क्षणभंगुर
बार-बार
रंगों को यहाँ वहाँ चमकाती
मन है कि आवारा
मोह के बवंडर में ओर छोर जलता है
स्वर्ण हिरण छलता है
निराशाएँ छाती हैं
मकड़ी के जालों-सी
तार-तार
सब अदृश्य जहाँ तहाँ फैलाती
जीव है कि बेचारा
होनी के बंधन में सर्प-सा मचलता है
स्वर्ण हिरण छलता है
मौसम बदलते हैं
विजयपर्व संग लिए
दिशा-दिशा
उत्सव को घर-घर में बिखराते
आस दीप उजियारा
दुख के अंधियारे में जगर मगर जलता है
सुख सुहाग पलता है
सब अनिष्ट टलता है
--पूर्णिमा वर्मन
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