विजयदशमी की कविताओं का संकलन
 

 

राम हमारी चेतना



युग बीते इतिहास ने, पलटे पृष्ठ तमाम।
खोज न पाया आज तक, कोई दूसरा राम।
कोई दूसरा राम, अनय पर नय का नायक।
कालजयी नरश्रेष्ठ, पराक्रम का परिचायक।
कह 'मिस्टर कविराय', नाम की वारुणि पीते।
सन्तति खोले नैन, यहाँ अनगिन युग बीते।



राम हमारी चेतना, चिंतन के आधार।
जिनसे योजित लोक के, दिन प्रति के व्यवहार।
दिन प्रति के व्यवहार, नाम ले प्रातः होती।
पावन रामजुहार, मलिनता उर की धोती।
कह 'मिस्टर कविराय', कहें दुःख में नर-नारी।
निर्बल के बल राम, खबर लो राम हमारी।



राजमहल के त्याग सुख, गही विपिन की राह।
यौवन में वल्कल वसन, एक पिता की चाह।
एक पिता की चाह, शरण में जो भी आया।
प्रस्तुत कर आदर्श, राम ने गले लगाया।
कह 'मिस्टर कविराय', पगों में झलके झलके।
रुके न तुम रघुनाथ, त्याग सुख राजमहल के।



जन जीवन में अमिट है, राम तुम्हारी छाप।
कीर्ति रश्मियों ने लिया, देशकाल को नाप।
देशकाल को नाप, बजा रणकौशल डंका।
नर वानर खग रीछ, संग जीती जा लंका।
कह 'मिस्टर कविराय', नीति मैत्री गठबंधन।
रामचरित से सीख, ले रहा है जनजीवन।



अवतारी या लोक नर, छिड़ा वाद-प्रतिवाद।
अपसंस्कृति की धुंध में, ढूँढ रहे अपवाद।
ढूँढ रहे अपवाद, कर रहे कलम घिसाई।
अपने अपने राम, ढूँढने की ऋतु आई।
कह 'मिस्टर कविराय', हाथ ले सोच दुधारी।
तथाकथित गुरुदेव, बन रहे खुद अवतारी।

- रामशंकर वर्मा


 

 

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