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रामकथा बाँच रहे
राम कथा बाँच रहे
सकुचाये दिन
कनखियों से देख रहे टूटती मर्यादाएँ
वचनों पे सिक्कों की नाचती निष्ठुरताएँ
खोखले रिवाजों का काजल अंगारों सा
आँखों में आँज-आँज
शरमाये दिन
प्रेम प्रीत की पोथी रटते सब सुगना बन
अंतर हैं लिखते पर ज़हरीले आवेदन
स्वार्थों के तीरों से घायल समबन्धों की
दीन दशा देख देख
घबराए दिन
सूखा आँखों का, पर रक्त, बन रहा पानी
झूठ हैं सिंहासन पर सच को काला पानी
गाते उकताते से रामराज की गाथा
वीतरागी हो कर अब
झुँझलाए दिन
- सीमा अग्रवाल |
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