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विजयदशमी (आठ
मुक्तक)
(१)
हमेशा राम ही बनना, कभी रावण नहीं बनना,
बहुत दुर्गम सही लेकिन, डगर तुम सत्य की चुनना,
भले ही त्यागना पड़ जाय, धन दौलत, सुयश कुछ भी,
कहानी न्याय की गढ़ना, ज़ुबानी प्यार की सुनना।
(२)
असत हरदम ही हारा है, हमेशा सत्य ही जीता,
उठाकर देख लो चाहे, कोई भी ग्रन्थ या गीता,
यही सिखला रहा हमको, परब ये विजय-दशमी का,
हमेशा राम ही जीते, कभी रावण नहीं जीता।
(३)
हमें इस राम लीला से, सुखद अहसास चुनने हैं,
हमें देते सु-शिक्षा जो, प्रसंग कुछ खास चुनने हैं,
प्रभू श्री राम का जीवन, हमें संदेश है देता,
चुनेंगे हम खुशी से यदि, हमें वनवास चुनने हैं।
(४)
खुशी से नाचता गाता, विजय-दशमी सुहाता है,
भलाई के कई दरिया, विजय-दशमी बहाता है,
अधर्मी हार जाता है, धरम की जीत होती जब,
बुराई पर विजय पाना, विजय-दशमी कहाता है।
(५)
ये पुतले कागजों के, फूँकने से कुछ नहीं होगा,
बुराई सिर्फ मुँह से, थूकने से कुछ नहीं होगा,
हमें अन्तःकरण से, हर बुराई दूर करनी है,
बिना औचित्य पैसा, फूँकने से कुछ नहीं होगा।
(६)
बहुत कुछ खुद समझ लेना, तनिक संकेत है मेरा,
बुराई जब तलक दिल में, दशहरा व्यर्थ है तेरा,
सचाई पर चलो प्यारे, गलत हर राह तुम त्यागो,
ये जीवन हो सका किसका ? न तेरा है न है मेरा।
(७)
बुराई जब पनपती है, हृदय अन्दर पनपती है,
हृदय के आँगना में ही, नियत-सुन्दर पनपती है,
सृजन का गेह तो है एक, लेकिन फर्क है गहरा,
निरादर एक होती है, द्वितीय सादर पनपती है।
(८)
मुहब्बत को बढ़ाने की, प्रतिज्ञा - भीष्म हो जाए,
जिसे हम तुम निभा पायें, सरल हर रस्म हो जाए,
बड़ी शिद्दत से निकली है, तमन्ना “मेघ” के दिल से,
दशहरा सार्थक होवे, बुराई भस्म हो जाए।
-मेघसिंह “मेघ” |
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