आज तो दशहरा है
नन्हीं के होठों पर एक ही ककहरा है
आज तो दशहरा है
सिहरन सी है जैसे अलसाई भोरों में
सुधियों सा धुंधलापन सन्ध्या के पोरों में
मेले की बात खुली गाँव की रसोई में
रामचरित की चर्चा गलियों चौबारों में
रावण पर विजय का
सुअवसर सुनहरा है
आतुर मृगछौनों से लाँघ रहे ड्योढ़ी से
छोटे–छोटे सपने सेंधुर के टिकुली के
नइकी भी पाँवों में रच रही महावर है
सोये अरमानों को पंख लगे तितली के
मन तो बस फैशन की
हाटों पर ठहरा है
आशायें उठती हैं बालू के भीत सी
उल्लासों की ऋतुयें जुगनू की ज्योत सी
रस्ते की दूब सा दुख फिर से उग आता है
खुशियाँ तो हैं जैसे जाड़े की धूप सी
किन्तु रंग उत्सव का
जीवन पर गहरा है
- कृष्णनंदन मौर्य |