|
विजय का दीप
विहँस रहा है बुत रावण, दस शीश उठाए।
बढ़े नेक इंसान, यहाँ पर नाम लिखा दे।
जिसने केवल
सत्कर्मों का, वरण किया हो।
कभी न छल से, बल से बाला, हरण किया हो।
लाज बचाई हो अबलाओं की, लुटने से,
सदाचरण का व्रत, वांछित, आमरण लिया हो।
अजय धनुष पर बाण, वही इस
बार चढ़ा दे।
जिसने कभी न
दुष्कर्मों के, महल बनाए।
दफनाकर आदर्श, स्वार्थ के, साज सजाए।
जिसने घर आबाद किए हों, सहज स्नेह से,
सिर्फ उसी को हक है, रावण मार गिराए।
करे आज कल्याण, वेधकर
आग लगा दे।
सर्व हितों की
रक्षा में जो रत हो योगी।
किया सुखों का त्याग, मनस को, रखा निरोगी।
लूटपाट से भरी न अपनी, कभी तिजोरी,
मानवता को मेट, बना ना धन का लोभी।
बन कलियुग का राम, विजय का
दीप जला दे।
-- कल्पना रामानी |
|