विजयदशमी की कविताओं का संकलन
 

 

रावण ने कहा

राम लीला मैदान में भीड़
कर रही थी
राम का इंतज़ार

उकताई निगाहें
नेपथ्य तक जा कर
लौटी रहीं थीं
बार - बार
अंतत; पर्दा उठा और
राम जी बाहर आये
सर पे मुकुट
काँधे पे धनुष और
ओठों पे मुस्कान
प्रत्यंचा पर रखते ही बाण
रावण के ओठों पे
आयी मुस्कान
राम ने कहा
क्या गजब ढा रहे हो
पापी होकर भी
मुस्कुरा रहे हो
रावण बोला
हे भगवन
यही तो मैं भी सोच रहा हूँ
तुम्हारे भीतर में
मैं अपने को देख रहा हूँ
न न डरो नहीं
मैं किसी से नहीं कहूँगा
बरसों से मरता आया हूँ
सो आज भी मरूँगा
प्रत्यक्ष न सही
मगर तुम्हारे भीतर तो
मैं ही रहूँगा।

– उर्मिला शुक्ला


 

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