राम को तो आज भी
वनवास है
झूठ के
सिर ताजपोशी सत्य को संत्रास है
विजय कैसी राम को तो
आज भी वनवास है
वासना
स्नेहिल कलेवर में उफनती फिर रही है
घर ही में अब दुधमुँहे सपनों की
छाती चिर रही है
हर कहीं पर साधुवेशी
रावणों का राज है
विजय कैसी राम को तो
आज भी वनवास है
मानवी
अवधारणाएँ आई. सी. यू. में पड़ी हैं
पाशविकता की भयावह राह
पर संस्कृति खड़ी है
सादगी की साग–रोटी
का बहुत उपहास है
विजय कैसी राम को तो
आज भी वनवास है
यह समय
है राम के व्यवहार बाग़ी हो रहे हैं
और दशरथ के प्रणी आचार
दाग़ी हो रहे हैं
पैंतरों से भरत के भी
ठगा सा इतिहास है
विजय कैसी राम को तो
आज भी वनवास है
दाल रोटी
के लिये हम रात–दिन सिर धुन रहे हैं
ज़िन्दगी पतझड़ हुई हम पीले-पत्ते
चुन रहे हैं
और देखो छल के आँगन
रोज ही मधुमास है
विजय कैसी राम को तो
आज भी वनवास है
– कृष्ण नन्दन मौर्य |