विजयपर्व कहता चल
आशाएँ फलने को विजयपर्व कहता चल
ओ पंथी जीवन के !
मरुथल में
कमल नहीं पीली कँटेलियाँ
संत्रस्त घड़ियों की सहचर सहेलियाँ
उनके सँग सुलझा सब उलझी पहेलियाँ
बाधाएँ दलने को बस आगे बढ़ता चल
ओ पंथी जीवन के !
तट जब
ढह जाते हैं राहें बदले धारा
ऊषाएँ रच लेता ख़ुद अपनी अँधियारा
जीवन तो जीवन है कब जीता कब हारा
पीड़ाएँ छलने को गाता चल हँसता चल
ओ पंथी जीवन के !
निस-दिन
कोहरे छाएँ मत साँसें घुटने दे
सुखचोर दुनिया में ये सपने लुटने दे
तू उनसे ऊपर है झंझाएँ उठने दे
चिंताएँ ढलने को विजयपर्व कहता चल
ओ पंथी जीवन के !!
--अश्विनी कुमार विष्णु |