विजयदशमी की कविताओं का संकलन
 

 

दशहरे के दोहे

भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य।
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य।।

आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ।
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ।।

मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत।
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत।।

शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान।
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान।।

राम वही आराम हो। जिसको सदा हराम।
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम।।

दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान।
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान।।

सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प।
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प।।

हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ।
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ।।

कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान।
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान।।

हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास।
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास।।

रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार।
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार।।

अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच।
धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच।।

राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत।
सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत।।

दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व।
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व।।

आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास।
द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास।।

रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति।
राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति।।

मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम।
शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम।।

शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्।
शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात।।

माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख।
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख।।

सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व।
'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व।।

कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब।
उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब।।

सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन।
बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन।।

शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य।
सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य।।

सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार।
अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार।।

जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ।
कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ।।

जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल।
छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल।।

रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ।
रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ।।

देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ।
बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ।।

निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम।
रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम।।

राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम।
'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम।।

--आचार्य संजीव सलिल


 

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