स्वर्ण
लंकाएँ
क्या करोगे
अब बनाकर सेतु सागर पर
राजपथों पर खड़ी हैं स्वर्णलंकाएँ।
पाप का रावण
चढ़ा है स्वर्ण के रथ पर,
हो रहा जयगान उसका
पुण्य के पथ पर,
राक्षसों ने पाँव फैलाए गली-कूचे
आज उनसे स्वर मिलाती हैं अयोध्याएँ।
राम तो अब हैं नहीं
उनके मुखौटे हैं,
सती साध्वी के चरण
हर ओर मुड़ते हैं,
कैकई की छाँह में हैं मंथरायें भी
नाचती हैं विवश होकर राज सत्ताएँ।
दर्द के साये
हवा के साथ चलते हैं,
सत्य के पथ पर
सभी के पाँव जलते हैं,
घूमती माँएँ अशोक वाटिकाओं में
अब नहीं होती धरा पर अग्नि परीक्षाएँ।
आम जनता रो रही है
ख़ास लोगों से,
युग-मनीषी खेलते हैं
स्वप्न-भोगों से,
अब नहीं लव-कुश लड़ें अस्तित्व की ख़ातिर
छूटती हैं हाथ से अभिशप्त वल्गाएँ
--डॉ. ओमप्रकाश सिंह |