अब के भी मधुवन गदराया
तुमको यह खबर हुई कि नहीं
मंजरियों वाला आम्रकुंज
इस बार अधिक ही बौराया
मादक सरसों का पीलापन
ले भू का आँचल फहराया
बन गया 'गीत गोविंद' यहाँ
हर पल्लव की सिहरन का स्वर
पगलाई सी फिर रही हवा
विद्यापति के पद गा-गाकर
परिरम्भ-पाश में बाँध धरा
नभ ने चुम्बन-रस छलकाया
सहमी-सहमी सी मर्यादा
बहकी-बहकी अभिलाषाएं
सिमटी-सिमटी तन की दूरी
फैली हैं मन की सीमाएं
अन्तःपुर की साँकल दिन में
खटकाते हैं पागल सपने
मौसम की प्रणय-पत्रिका में
सिहरन के मन्त्र लगे छपने
कनवतियों में रस घोल-घोल
सुधियों का आँगन मुस्काया
गोधूली की बेला घिरती
जैसे कुन्तल की सघन छाँव
बोले नयनों से, सुनता भी
नयनों से ही सम्पूर्ण गाँव
तन की पहेलियों को यह मन से
हल करने को निकल पड़ा
अब प्यास हुई पर्वत जैसी
रेतीला सागर पिघल पड़ा
तुम आसपास फिर आँखों में
क्यों 'मेघदूत' का क्षण आया |