वासंती फूल
              - सुरेन्द्रपाल वैद्य

 

सबके मन भाते हैं देखो
खिले-खिले वासंती फूल

शीतल ऋतु अब विदा हो रही
सखियाँ गहरी नींद सो रहीं
देख रहीं साजन के सपने
खुशियों के झूले में झूल

दूर गगन में कोई बादल
भटक रहा ज्यों प्रेमी पागल
सभी दिशाओं में मंडराता
जैसे मंजिल गया हो भूल

हर टहनी पर फूटी कोंपल
सँवरा है धरती का आँचल
किंतु साथ में उग आए हैं
तीखी चुभन लिए कुछ शूल

स्नेह-भाव मन में जग जाते
और मिलन की आस जगाते
ऐसे में जाने-अनजाने
सब रह जाते धरे उसूल

- सुरेन्द्रपाल वैद्य

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter