ओ बसंत
              - सीमा हरिशर्मा

 

ओ बसन्त तुम मेरे घर तक
कैसे आओगे ?

दूर-दूर तक पेड़ नहीं घर
मल्टी में मेरा
हवा बसन्ती को नभ छूते
मालों ने फेरा
किरण कोई बरजोरी
खिड़की तक आ भी जाती
ऊँची दीवारों की छाया
उसको डस जाती
ओ बसन्त मैं कहाँ सहेजूँ
फूलों की डालें
रूखे जीवन सूखी माटी
क्या अँखुआओगे ?

सुनो कलम तुम धर्म निभाओ
चित्र बना डालो
आँगन खुला-खुला बगिया में
रंग सजा डालो
सड़क किनारे के पलाश
गुलमोहर प्रेम पगे
बच्चे अगली पीढ़ी के
देखेंगे इन्हें ठगे
ओ बसन्त भूले-भटके
घुस पाये शहरों में
चित्र देख अपने रोओगे
या मुस्काओगे ?

धूप कुनकुनी आँगन की
गीतों में भर देना
अमुआ, महुवा की गन्धे
पाती में भर लेना
कोयल की स्वर लहरी अब मन
छंदों में साधो
नर्म हवा बासन्ती अब
अहसासों में बाँधो
कोई पीढ़ी आने वाली
खोजे यदि तुमको
ओ बसन्त तुम किस वन में हो
पता बताओगे ?

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