तितलियों को फूल भरमाने लगे
दिन बसंती राग फिर
गाने लगे
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टूटकर
बिखरी
कटोरी धूप की
शगुन भीनी खील जैसे सूप की
गुनगुनाती आँगने में इक किरन
हँस रही छत पर दुपहरी
रूप कीरंग मनिहारिन खड़ी है द्वार पर
खनखनाते बोल फिर
भाने लगे
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दौड़ती है
मेड़ पर आकुल पवन
थामती है छूटते मन के हिरन
गाँव में ठहरा हुआ फागुन सुघर
पीत सरसों धरा पर
केसर गगन
लोक-धुन उड़ने लगीं खुशियाँ बिछीं
उत्सवों के शोर फिर
आने लगे |