मन मे
सुरभित सुबह खिल गई
यह बसंत भी जादूगर है
सुधियों में वह नेह निशा है
यद्यपि सूरज है पछाँह में
चाँद निहारा करते थे जब
हम बाहों को लिये बाँह में
तोड़ रहा
अवसादों का गढ़
हाथों में फूलों का शर है
सद्य नहाई मुकुलित कलियाँ
पलक झुका कर करती वंदन
पवन रेशमी पगड़ी बाँधे
इत्र लगा करता अभिनंदन
चला आ
रहा इठलाता सा
मानो यह अदेह का वर है |