ओ वसंती पवन पावन
              - कल्पना मनोरमा

 

ओ वसंती पवन पावन
रुक सको तो वहाँ रुकना
हो जहाँ ठिठुरन हठीली

भूलकर जाता नहीं
उस ओर कोई
तक रही बूढ़ी गली
लेटी जिधर है
धूल उड़ती है न उठता
धुआँ घर से
भोर भी आती दबे पाँवों
उधर है

संतरी-सी पुलक-पुलकित
हो सके तो साथ लाना
बन सके चितवन छबीली

घोंसले हैं मगर आतीं
नहीं चिड़ियाँ
किस तरह के पंख
उनको मिल गए हैं
उड़ रही हैं आँख मींचे
जो क्षितिज तक
होंठ लेकिन नेह वाले
सिल गए हैं

बोलती मन ललक-चंचल
साथ ले जाना ज़रा-सी
खिल सके धड़कन रँगीली

फूल जाएँगे सरोवर
में कमल भी
मौर भी सिर पर रखेंगे
बाग़ सारे
यदि नहीं लहका हृदय
घायल मनुज का
रह न जाएँ बाण बासन्ती
कुँआरे

गेरुए रंग में घुला दिन
साथ ले आना सलोना
लग सके अचकन सजीली

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