आज पूरी देह का संगीत
हिलती डाल पर
छूटते है क्षण हवा के
ज्यों किसी रूमाल पर
भौंह आँखें बाँह नाभि
तक रचीं -
कत्थक अदाएँ
बाण फूलों के लिए
उतरीं सुरों की अपसराएँ
फँस गई ऋतुएँ कुँवारी
केश खोले जाल पर
फूटते हैं उँगलियों में
गंध के सोते
साँझ की यह बाँसुरी ले
उर्वशी!
हम पुरुरवा
तेरे लिए होते
बाँधते मन बोल मीठे
अप्सरा के ताल पर
|