बसंती क्षणिकाएँ 
              - डॉ. शैलेश गुप्त 'वीर'

 


ओढ़कर पीली चूनर
निहारती गगन को
एकटक धरा
अनन्त भाव विचरते
विस्मित गगन।


दृष्टि मिली
दिखे अलौकिक दृश्य
मन ने कहा, मन से-
लो आ गया मधुमास।


सौन्दर्य ज्यों कुसुमाकर
बोल ज्यों कुसुमासव
दृष्टि ज्यों सृष्टि
नेह की वृष्टि
महक रहा पोर-पोर
ओर-छोर।


तुम मिलती रहो
मुझसे यों ही
ताज़ी हवा के झोंके की तरह
मुझे अनुभूति है
मैं हूँ ऋतुराज।


तुम्हारी मुस्कान की आभा
देती नवजीवन
तुम झूमती प्रकृति
अलक नवपल्लव
अनुभूतियाँ
खिलातीं असंख्य कुसुम
सचमुच
तुम हो, तो बसंत है।


बसंत प्रतीक्षारत है
नवसृजन की आस में
कि तुम आओगी
कोई नया गीत लेकर
हो सकेगी खोये हुए
आत्मविश्वास की
पुनर्पूर्ति
और मिल सकेगी
चेतना को स्फूर्ति।


देह के सौंदर्यशास्त्र पर
भारी है सौंदर्य का दर्शनशास्त्र
आत्मा कर रही है अध्ययन
मन के पाठ्यक्रम का
और कर रही है विश्लेषण
मधुमास का
सर्वथा नये दृष्टिकोण से।


हम कठपुतलियाँ
सच है यही
मौसम से लोहा लेते लोग
बह जाते हैं
बसंत की रौ में
होकर मंत्रमुग्ध
और प्रकृति
मुस्कुराती है
चुपचाप।


मन-
उपवन सरसों का
चेतना-
चटककर
हो गयी पुष्प
आत्मा-
सुना रही संदेश
नवजीवन का
बसंत आया
उल्लास छाया।

१०
बजी मोबाइल की रिंगटोन
बजने लगे तार हृदय के
समाप्त हुई प्रतीक्षा
सिमट गयी
मीलों की दूरी
रच दिया बसंत ने
कौतुक अलौकिक।

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