जमीं को सब्ज़ करे मदभरी फ़िजां आकर
बिखेरता है कई रंग बागबाँ आकर
चिनार सुर्ख पलाशों में आग की ज़र्दी
सजा रही है लताओं को ग़ुलफ़िशां आकर
महक हवा में फिजाँ में हसीन रंगत है
लगा वसन्त ही उतरा है गुलसिताँ आकर
मचलतीं तितलियाँ बन-ठन के बाग आयीं हैं
लगाते तान भँवर राग की जुबां आकर
भरीं हैं झीलें किनारों पे ख़ास रौनक़ है
सफेद हंसों के ठहरे हैं कारवाँ आकर
लिए अनंग धनुष छोड़ता है शर मादक
तपी का ले रही रति धैर्य इम्तिहाँ आकर
कि हाट-बाट में कुञ्जों में गाँव-गलियों में
वसन्त पसरा है 'हरि' अब कहाँ-कहाँ आकर
- हरिवल्लभ शर्मा 'हरि' |