जा रहे वर्षांत के बादल
हैं बिछुड़ते वर्ष भर को नील
जलनिधि से,
स्निग्ध कज्जलिनी निशा की उर्मियों से,
स्नेह-गीतों की कड़ी-सी राग रंजित उर्मियों से,
गगन की शृंगार-सज्जित अप्सराओं से,
जा रहे वर्षांत के बादल
किस महावन को चले
अब न रुकते अब न रुकते ये गगनचारी
नींद आँखों में बसी गति में शिथिलता
किस गुफ़ा में लीन होंगे-
सांध्य-विहगों से थके डैने लिए भारी
साथ इनके जा रहा
अगणित विरहिणी विरहियों का दाह
दे रही अनिमेष नयनों से हरित वसुधा विदाई
किस सुदूर निभृत कुटी में-
शुजिता सुधि की इन्हें फिर याद आई
भर गई आ रिक्त कानों में
किस कमल वन में अनिदित
शारदीया की करुण चंचल रुलाई
जा रहे अलोक-पथ से मंद गति
वर्षांत के बादल
हैं सलिल प्लावित नदी-नद-ताल-पोखर
वेग-विह्वल झर रहे गिरि-स्रोत निर्झर
दे भरे मन से विदा कर कुसुम किरणों से नमन
छोड़कर अंकुरित नूतन फुल्ल खेत
छोड़ उत्सुक बंधुओं के नेत्रों का प्यार
छोड़ लघु पौधे व्यथातुर शस्य शालि अपार
जा रहे वर्षांत के बादल
खोह अंजन की कहाँ वह गुरु गहन
आगार वह विश्राम-मुग्ध विराम की
जा रहे जिसमें चले थे थके वन-पशु से
प्यास होठों पर लिए किसके मिलन की
भर जगत में नव्य जीवन
जा रहे किस प्रिया की सुधि से घिरे
नयी आकांक्षा भरे वर्षांत के बादल
जा रहे वर्षांत के बादल।
रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
15 सितंबर 2003
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