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श्याम भृंग मेघिमा,
भूमि गंध मधुरिमा,
घन के आलिंगन में
चपला की भंगिमा!
मुंदरी के नग जगमग,
नीलांजन साँवर दृग,
पुरवा से चंचल पग,
कुंतल निशि-कालिमा
श्याम भृंग मेघिमा!
रसमय तन-भार मंद मुग्ध चाल,
भुज बंधनों-सी उन्मद रसाल,
आई वह कजरारी ठंडी तन-छाँह डाल,
ऊसर का तप्त धैर्य कर निहाल!
मिट्टी नव-वधू बनी,
चूनरी हरीतिमा,
श्याम भृंग मेघिमा!
सब कुछ रसभीना है,
सब कुछ मन भावना,
किंतु तपी रीती है,
बेजुबान कामना!
वंध्या ही रही-
उम्र भर की उपासना,
रिक्त पात्र हाथ थमा,
चली गई साधना,
डूब गई संध्या की लालिमा-
घटाओं में
डूब गया चाँद
लिए जीवन की चंद्रिमा
श्याम भृंग मेघिमा!
-गिरिजा कुमार माथुर
07 सितंबर 2005
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