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वर्षा महोत्सव

 

श्याम भृंग मेघिमा,
भूमि गंध मधुरिमा,
घन के आलिंगन में
चपला की भंगिमा!

मुंदरी के नग जगमग,
नीलांजन साँवर दृग,
पुरवा से चंचल पग,
कुंतल निशि-कालिमा
श्याम भृंग मेघिमा!

रसमय तन-भार मंद मुग्ध चाल,
भुज बंधनों-सी उन्मद रसाल,
आई वह कजरारी ठंडी तन-छाँह डाल,
ऊसर का तप्त धैर्य कर निहाल!
मिट्टी नव-वधू बनी,
चूनरी हरीतिमा,
श्याम भृंग मेघिमा!

सब कुछ रसभीना है,
सब कुछ मन भावना,
किंतु तपी रीती है,
बेजुबान कामना!
वंध्या ही रही-
उम्र भर की उपासना,
रिक्त पात्र हाथ थमा,
चली गई साधना,
डूब गई संध्या की लालिमा-
घटाओं में
डूब गया चाँद
लिए जीवन की चंद्रिमा
श्याम भृंग मेघिमा!

-गिरिजा कुमार माथुर
07 सितंबर 2005

  

वर्षा ऋतु

तृप्त मन को
सराबोर तन को कर गईं
वे बूँदें नभ की
इस धरा पर पड़ीं तो
महक उठी सोंधी-सी

कृषक को देकर दर्शन
धन्य तुमने ही किया था
फूल पत्तों पर गिरकर
नया जीवन उनको दिया था

इंद्र की सखी हो
या जाने कोई मायावी हो
कहीं बरसीं तो कहीं ना बरसीं
जैसे कोई जादूगरी हो

उल्लास मन में है समाता
और खुशी से झूम जाता
साथ तेरा पा के प्रिये
सिर्फ़ तुम हो, हाँ
तुम्हीं हो जो
गिरकर भी खुशी देती हो

- संगीता मनराल

07 सितंबर 2005

वर्षा में मन
(तीन हाइकु)

कुछ जज़्बात
काले बादलों जैसे
छाए मन में।

एक भावना
उभर कर आई
बरस गई।

गीली आँखें
कर गई मन को
हल्का हवा-सा।

लक्ष्मीनारायण गुप्त
07 सितंबर 2005

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