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वर्षा महोत्सव
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वर्षा मंगल
संकलन |
मेघगीत |
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श्याम घन रे
तिमिर तन पर मोतियों का -
सजल मृदु अभिराम मन रे
श्याम घन रे
चित्र से तुम हो न चित्रित
व्योम मरु में
मित्र कज्जल भार विस्तृत
सोम तरु में
अमित अमृत
पान कर तेरा जगत यह मरण विस्मृत
बरसते हैं प्राणमय तेरे अमित अविराम कण में
श्याम घन रे
प्राण तेरे बो रहे हैं
प्राण पग-पग
दान तेरे ढो रहे हैं
क्या न अग जाग
त्राण के मग
त्याग से तेरे हरे हैं मीत लगभग
खो रहे जग के लिए जीवन रतन-
सुतलाम तन रे
श्याम घन रे
चेतनामय चपल जीवन
हास मुखरित
कर रहा है फूलमय वन
वास विसरित
मधुर अगणित
जीवनों से नाज़ तृण से धरिणि पुलकित
उल्लासित सर सिंधु सरिता -
गहन कानन धाम घन रे
श्याम घन रे
एक मम असफल सुजीवन
विफल धन जन
चाह से नित विकल वन-वन
भ्रांत रे मन
एक भी क्षण
मुक्त होता स्वार्थ का जो विकट बंधन
मीत मेरे ही लिए क्यों है गया
विधि काम बन रे
श्याम घन रे
दूर कर दे प्यास मेरी
मीत मेरे
चूर कर दे आस सारी
गीत मेरे
चित्त मेरे
मौत से लड़ गीत गाएँ जीत के रे
सफल हो बलिदान होकर
प्राण धन मन चाम तन रे।
श्याम घन रे।
- हंसकुमार तिवारी
28 अगस्त 2001
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कजरारे बादल
घिरे नभ में श्यामल-श्यामल,
सलोने, कजरारे बादल!
मृगों-से ये चंचल-चंचल
चौकड़ी भरते दल-के-दल
किलक कर कीड़ा-कौतूहल
कर रहे हैं हलचल पल-पल!
विविध रंगों में, विविध प्रकार
विविध रूपों में पंख पसार,
उड़ रहे हैं, सुंदर-सुकुमार
विहग से विहंस-विहंस प्रतिवार
कंठ में इंद्र-धनुष का हार
हृदय में अमृत-पारावार;
हास में भर उल्लास अपार
दान में भर स्वर्णिम उपहार
गा रहे हैं, संगीत नवल
सलोने, कजरारे बादल!
भर गया मेरा अंतस्तल
देख ये दल के दल बादल
तुम्हारी सुधि की मृदुल हिलोर
गई अंतर-तट को झकझोर;
भर गया प्राणों, में कलरोर
पुतलियों में विक्षोभ अछोर
आज तुम मुझ से दूर-सुदूर
कि नभ से अवनी जितनी दूर
सूर्य से कमलिनी जितनी दूर
चाँद से कुमुदिनी जितनी दूर
पिकी से बादल जितनी दूर
स्वाति से चातक जितनी दूर
आज तुम मुझसे उतनी दूर
कि नभ से अवनी जितनी दूर
विष भरे हैं, ये सजल-सजल,
सलोने, कजरारे बादल!
झर रहे हैं फूलों से पल,
चुभ रहे शूलों-से बादल!
जुड़ रहा अंबर में मेला
बादलों का है अलबेला,
सांध्य का आँचल है फैला
मदिर-मधुमय-मंजुल बेला
किंतु मेरे प्राणों पर आज
गिर गई मानो सहसा गाज,
भिखारी-सा मेरा अधिराज
लुटा-सा, खोया-सा सिरताज
नशीले, बादल तो कर लाज
सजीले, बादल तो कर लाज
रसीले, बादल तो कर लाज
हठीले, मत कर रे आवाज़
मान रे मान, ज़रा पागल
सलोने, कजरारे बादल!
-विपिन जोशी
24 अगस्त 2005
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