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वर्षा महोत्सव
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झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग अमर! अंबर में भर निज रोर!
झर-झर-झर निर्झर गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर सागर में,
सरित-तड़ित-गति- चकित पवन में,
मन में विजय-गहन-कानन में,
आनन-आनन में रव घोर कठोर
राग अमर! अंबर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल -
चल रे चल -
मेरे पागल बादल!
धँसता दलदल
हँसता है नद खल-खल
बहता कहता कुलकुल कलकल-कलकल।
- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
16 अगस्त 2001
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बादल को देख
वृक्ष
भूल जाता है जलन
और इंतज़ार के पीड़ा भरे दिन
ज्वर से पीड़ित नदी
पोंछती हैं
दोनों हाथों से आँसू
धरती
चली जाती है हाट
हरी साड़ी के लिए
पवन
ले जाता है कूड़ा
पीठ पर लादकर
मेंढक
पोखर के किनारे गाता है
स्वागत के गीत
किसान
थपथपाता है बैलों की पीठ
साजता है हल
दूर अकेले में
चाँद को पंख में बिठाए
नाचता है मोर
मुस्कुराते जंगल के बीच
आकाश में उड़ते
बादल को देख
- चंदन तारक
23 अगस्त 2001
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