| नभ के नीले आँगन में घन घोर घटा घिर आईं।
 इस मर्त्य-लोक को देने
 जीवन-संदेशा लाईं।
 है परहित निरत सदा येमेघों की माल सजीली।
 इस नीरस, शुष्क जगत को
 करती हैं सरस, रसीली।
 इससे निर्जीव जगत जबसुंदर, नव जीवन पाता।
 हरियाली मिस अपनी वह
 हर्षोल्लास दिखलाता।
 इस वसुधा के अँचल पर अनुपम प्रभाव छा जाते।
 इन हरी घास के तिनकों
 में भी मोती उग आते।
 इनका मृदु रोर श्रवण करकोकिल मधु-कण बरसाती।
 तरु की डाली-डाली पर
 कैसी शोभा सरसाती।
 केकी निज नृत्य दिखाया,करता फिरता रंगरेली।
 पक्षी भी चहक-चहक कर
 करते रहते अठखेली।
 सर्वत्र अंधेरा छायाकुछ देता है न दिखाई।
 बस यहाँ-वहाँ जुगनू-की
 देती कुछ चमक दिखाई।
 पर ये जुगनू भी कैसेलगते सुंदर, चमकीले।
 जगमग करते रहते हैं
 जग का ये मार्ग रंगीले।
 सरिता-उर उमड पड़ा हैफिर से नव-जीवन पाकर।
 निज हर्ष प्रदर्शित करता
 उपकूलों से टकरा कर।
 मृदु मंद समीकरण सर-सरलेकर फुहार बहता है।
 धीरे-धीरे जगती का
 अँचल शीतल करता है।
 - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी18अगस्त2005
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