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वर्षा महोत्सव
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वर्षा मंगल संकलन
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बादल बरसै मूसलाधार |
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बादल बरसै मूसलाधार
चरवाहा आमों के नीचे खड़ा किसी को रहा पुकार
एक रस जीवन पावस अपरंपार
मेघों का उस क्षितिजकूल तक पता न पाऊँ
कि कैसी घुलमिल है संसार
- एक धुंध है प्यार
बहना है
यह सुख कहना क्या
उठना-गिरना लहर-दोल पर
हिय की घुंडी मुक्त खोल कर
पर उस दूर किसी नीलम-घाटी से यह क्या बारंबार -
चमक-चमक उठता है?
बिंबित आँखों में अभिसार
आज दूर के सम्मोहन ने यात्रामय कर डाला
बिखर गया वह संचित सुधि-धन जो युग-युग से पाला।
पर यह निराकार आधार
कहाँ से सीटी बजा रहा है
बुला रहा है, पर बेकार -
यहाँ से छुट्टी रज़ा कहाँ है?
गैयाँ चरती हैं उस पार
- प्रभाकर माचवे
14 सितंबर 2001
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मेह की बूँद
(तीन छंद)
1
मेह की बूँद चली अकिली
धरनी पै गिरी धरनी मैं समानी।
छांड़ि अटारी सवारी बिना चली,
काहू नैं ना इसकी गति जानी।।
कैसे चली किस काज चली
हियरा मैं बसाय चली है कहानी।
काहू कौ बूँद सुधा सम है
अस्र काहू कौ है बरसात को पानी।।
2
परदेश बसे पिय मोरे सखी
हियरा न सुहाबति राति डरानी।
फैली छटा घिरि आई घटा
अलि बैरी अनंग करै मनमानी।
ऐसे हिये तैं भलो पथरा जामैं,
बादर बूँद न नेकु समानी।
होइहै सुधा काहू और कौ बूँद,
हमारे लिए बरसात को पानी।।
3
बादर में बिजुरी न रुकै
बसुधा छबि देखिबे बाहर आबै
डाँटि रहयो बैरी बदरा
सुनि दामिनि आँखिन नीर चुआबै
चूबैं चहुँ दिशि औलतियाँ
बिरहिनि के हिये संतापु बढ़ाबै
बैरी अनंग भयो सजनी
मोहि देखि अकेली दाँव लगाबै।।
-डॉ जगदीश व्योम
22 अगस्त 2005
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