छंद आज रस भीगे, गंध-नदी बहती है।
बनपाँखी लौट रहे बाँस-बन हरे-हरे
धुँधुआती धरता पर चंदन से मेघ झरे
बूँदनियाँ पूछ रहीं, प्यास कहाँ रहती है?
नटनी-सी नाच-नाच मगन मुई बौराई
खुले आम यौवन-घट हरियाली भर लाई
इस जवान बेटी को, माँ-धरती सहती है।
पलक-पलक इंद्र धनुष बनते हैं, मिटते हैं
अँगना के अधरों से गीत-शिशु लिपटते हैं
अँगड़ाई लेने दो, परंपरा कहती है।
नारायणलाल परमार
10 सितंबर 2005
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