साँझी धूप

तुम जो बैठे छत चौबारे
आन खड़ी मैं खिड़की पर
बीच गली के पुलिया बन गई
तेरी मेरी साँझी धूप

छू के तुझको पवन का झोंका
भीनी खुशबू घोल गया
सुनी जो तेरे गीतों की धुन
रूह काँपी, मन डोल गया

कनखी से देखे, मुस्काए
छज्जे बैठी साँझी धूप

तेरे हाथों छनी जो बारिश
घूँट-घूँट कर पी ली मैंने
बूँद बूँद से नाम लिखा फिर
बंद हथेली सी ली मैंने

उन लम्हों की साखी बन गई
भीगी भीगी साँझी धूप

किरणों से तुम लिखते पाती
झुकी आँख से पढ़ी–सुनी
तुम तक अपना हाल सुनाने
साँसों से इक डोर बुनी

आँखों के वो कस्में-वादे
लिखती जाती साँझी धूप|

शर्म लाज ने ऐसा बाँधा
देहरी आँगन लाँघ न पाई
कोमल तन काँपा सिहराया
छू ली जब तेरी परछाई

मौन प्रीत की उन घड़ियों में
धीर बंधाती साँझी धूप
तेरी मेरी साँझी धूप

- शशि पाधा
९ अगस्त २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter