फिर पड़ेगी
सावनी जलधार मन अच्छा लगेगा
फिर हँसेंगे हम सुबह से शाम तक अच्छा लगेगा
छुट्टियाँ हैं, दौड़ जाएं हम, समुद्री धार तक
कश्तियाँ फिर ले चलें मझधार तक अच्छा लगेगा
एक कोने से शुरू कर के शहर सिर पर उठाएं
पागलों सा शोर फिर बाज़ार तक अच्छा लगेगा
खींचती मन, गंध बेला की, धरा सोंधी हुयी है
आज रस्ता दूर वाले बाग तक अच्छा लगेगा
आम जामुन लीचियों के पेड़ फल से लद गए हैं
इनके नीचे गुनगुनाते आएँ हम अच्छा लगेगा
एक ऊँची डाल पर झूला पड़े मनभावना
पेंग मारें उड़ चलें आकाश तक अच्छा लगेगा
कौन जाने शाम आए तो हमें पाए न पाए
दोपहर में ही बहुत कर जाएं हम अच्छा लगेगा
ये फुहारें ये समीरण आज है कल हो न हो
आओ इसमें डूब जाएं साल भर अच्छा लगेगा
- पूर्णिमा वर्मन
९ अगस्त २०२०