जाने कब से
दहक रहे हैं
इन पलकों के कोए
जाने कितनी रातें बीतीं
जाने कब थे सोए
द्रुमदल छायादार न उपजे
मीठे अनुरागों के
स्मृतियों के वन पर न बरसे
अमृतकण भादों के
अब बस केवल भार बना है
तन मिट्टी का ढेला
आह! आह को सींचा प्रतिक्षण,
पुष्कल आँसू बोए
जाने कब से...
उस अबीर का, उस गुलाल का
अतिरेकी रँग दूना
उस सिन्दूर और कुमकुम का,
वर्जित, आँचल छूना
नेत्र निष्कलुष क्यूँ न छलकें
हतभागी अधनींदे
शुक्ल पक्ष में तारकद्वय के
स्वप्न सुनहले रोए
जाने कब से ...
धवलकीर्ति पटु आलम्बन,
तज हाथ हमारे, जाते
दिग्-दिगन्त हम प्रतिध्वनियों में
नहीं पुन: मग पाते
जल इतिहास-पुलिंदो के
काले पीले पन्नों में
ज्वालदाह में तप-तप हमने
पते ठिकाने खोए
जाने कब से...
अलस गया धनु-इन्द्र मेघ का
पावस की झड़ियों में
कुपित हो उठे अन्तराल सब
अन्तरङ्ग घड़ियों में
स्तब्ध, उपेक्षित,चित्त, सिद्धि का
अन्तर्यामी! धधके
निर्-निर्-अन्तर, नील पलक से
पद विकर्षणी धोए
जाने कब से...
- आचार्य डॉ. कविता वाचक्नवी
९ अगस्त २०२० |